कृत्रिम वर्षा क्या होती हैं यह कैसे की जाती हैं?
भारत में कई बार पर्याप्त वर्षा ना होने के कारण फसलें अक्सर चौपट हो जाती
है इसलिए यहाँ के किसान कर्ज के तले दबे हुए हैं. वैज्ञानिकों ने बारिश की
अनिश्चिता या कम बारिश की समस्या से निपटने के लिए कृत्रिम वर्षा का उपाय
खोजा है. कृत्रिम वर्षा कराने के लिए कृत्रिम बादल बनाये जाते हैं जिन पर
सिल्वर आयोडाइड और सूखी बर्फ़ जैसे ठंठा करने वाले रसायनों का प्रयोग किया
जाता है जिससे कृत्रिम वर्षा होती है.
यह तरीका 'क्लाउड सीडिंग' कहलाता है। इसमें उन बादलों को सिलेक्ट किया जाता है जिनमें पहले से कुछ नमी मौजूद होती है। फिर प्लेन की मदद से उन बादलों पर सिल्वर आयोडाइड, कॉमन सॉल्ट, ड्राइ आइस या इसकी जैसी चीजें डाली जाती हैं। इनकी वजह से मौजूद नमी एकसाथ एकत्र हो जाती है, जिससे बारिश होती है। क्लाउड सीडिंग के दो प्रमुख तरीके हैं। पहला कोल्ड क्लाउड सीडिंग और दूसरा वॉर्म क्लाउड सीडिंग।
यह प्रक्रिया निम्न चरणों में पूर्ण होती हैं|
पहला चरण -
पहले
चरण को पूरा करने के लिए कई रसायनों की मदद ली जाती है. इस चरण में जिस
इलाके में बारिश करवानी होती है, उस इलाके के ऊपर चलने वाली हवा को ऊपर की
ओर भेजा जाता है. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि बादल बारिश करने के योग्य बन
सकें. इन रसायनों के द्वारा हवा से जलवाष्प को सोख लेने के बाद संघनन की
प्रक्रिया शुरू हो जाती है. इस प्रक्रिया के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले
रसायनों के नाम इस प्रकार हैं.
संख्या | रसायनों के नाम |
1 | कैल्शियम क्लोराइड |
2 | नमक |
3 | कैल्शियम कार्बाइड |
4 | यूरिया |
5 | कैल्शियम ऑक्साइड और |
6 | अमोनियम नाइट्रेट |
दूसरा चरण -
दूसरे
चरण को बिल्डिंग स्टेज भी कहा जाता है, इस चरण में बादलों का घनत्व बढ़ाया
जाता है. जिसके लिए नमक और सूखी बर्फ के अलावा निम्मलिखित रसायनों का
प्रयोग किया जाता है-
संख्या | रसायनों के नाम |
1 | यूरिया |
2 | अमोनियम नाइट्रेट और |
3 | कैल्शियम क्लोराइड |
तीसरा चरण -
सुपर-कूल वाले रसायनों यानी की सिल्वर आयोडाइड और शुष्क बर्फ का छिड़काव विमान, गुब्बारों और मिसाइलों की मदद से बादलों पर किया जाती हैं. जिसके कारण बादलों का घनत्व और बढ़ जाता है और वो बर्फ के क्रिस्टल में बदल जाते हैं. जिसके बाद बादल में छुपे पानी के कण बिखरने लगते हैं और गुरुत्व बल के कारण धरती पर गिरते हैं. जिन्हें हम बारिश कहते हैं.
क्या हो सकते हैं नुकसान -
सुपर-कूल वाले रसायनों यानी की सिल्वर आयोडाइड और शुष्क बर्फ का छिड़काव विमान, गुब्बारों और मिसाइलों की मदद से बादलों पर किया जाती हैं. जिसके कारण बादलों का घनत्व और बढ़ जाता है और वो बर्फ के क्रिस्टल में बदल जाते हैं. जिसके बाद बादल में छुपे पानी के कण बिखरने लगते हैं और गुरुत्व बल के कारण धरती पर गिरते हैं. जिन्हें हम बारिश कहते हैं.
क्या हो सकते हैं नुकसान -
कई संस्थानों का कहना है सिल्वर आयोआइड जीव-जंतुओं को नुकसान पहुंचाता है।
मौसम को गड़बड़ कर सकता है। इतना ही नहीं इसमें खर्चा भी बहुत होता है। साथ
ही इससे बाढ़ का खतरा भी होता है।
भारत में कृत्रिम वर्षा -
भारत में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद के सहयोग से कुछ
जल-विज्ञान विशेषज्ञों ने कृत्रिम वर्षा के सफल प्रयोग किए हैं। ऐसे प्रयास
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में
स्थानीय रूप से काफी सफल रहे थे। किंतु अधिक व्यय के कारण सरकारी विभाग इस
ओर वांछित रूप में उन्मुख नहीं हो सके हैं।
वर्षाधारी परियोजना -
- 22 अगस्त, 2017 को कर्नाटक सरकार ने बंगलूरू में कृत्रिम वर्षा के लिये वर्षाधारी परियोजना को आरंभ किया था।
- 2018 में राज्य सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि इस परियोजना से बारिश में 27.9% की वृद्धि हुई है और लिंगमनाकी जलाशय में 2.5 tmcft (Thousand Mllion Cubic Feet) का अतिरिक्त प्रवाह रहा है।
- एक स्वतंत्र मूल्यांकन समिति द्वारा इसे सफल परियोजना घोषित किया गया।
वर्षा मापी क्या होता हैं ?
किस स्थान पर कितनी वर्षा हुई है, इसे मापने के लिए एक यंत्र काम में लाया जाता है, जिसे वर्षामापी (Rain gauge) कहते हैं। इसे एक निश्चित समय में तथा निश्चित स्थान पर वर्षा में रखकर पानी के बरसने की मात्रा को माप लिया जाता है।
वर्षामापी कई तरह का होता है। वर्षा अधिकतर इंच या सेंटीमीटर में
मापी जाती है। वर्षामापी एक खोखला बेलन होता है जिसके अंदर एक बोतल रखी
रहती है और उसके ऊपर एक कीप लगा रहता है। वर्षा का पानी कीप द्वारा बोतल
में भर जाता है तथा बाद में पानी को मापक द्वारा माप लिया जाता है। इस
यंत्र को खुले स्थान में रखते हैं, ताकि वर्षा के पानी के कीप में गिरने
में किसी प्रकार की रुकावट न हो।
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